ऐसी चहल-पहल क्यों

पंचायत और घमासान
वक्त बदले तो बदले उसकी फितरत बदलने की है। पर हम बदले तो क्या बदले? जी हां, अगर हम बदले तो बहुत कुछ बदल सकता है पर ऐसा होना असंभव सा है। आखिर हमारी फितरत बदलने की कम बदले की भावना की ज्यादा रहती है। होना - धोना कुछ नहीं है फिर भी बदले की भावना में जल-जलकर कोयला होते जा रहे हैं। पर फिर भी कह रहे हैं कि हम बदल चुके हैं और व्यवस्था को बदलने का दमखम रखते हैं। निर्वाचन लोकतंत्र की प्रक्रिया का ऐसा हिस्सा है जो पांच बरस में एक बार  हाशिए पर खड़े व्यक्ति को राजा बनने का अवसर देता है परंतु वह तो उस अवसर को पव्वे की भेंट चढ़ा कर अंधेरे में खो जाता है। आज उसी का परिणाम है कि अपने बीबी बच्चों को दिल्ली, देहरादून जैसे महानगरों में बसाकर गांव के समग्र विकास का नारा लेकर चुनाव की दस्तक के साथ अचानक समझदार, होशियार, जनता के हितैषियों की एक बाढ़ आ खड़ी है जिसका सैलाब देखकर ऐसा लगता है मानो बंजर खेतों को अचानक से हरा भरा कर देगा। जिसका होना शायद असंभव सा है।
पंचायत का दौर हो और देहरादून, हरिद्वार, पंतनगर, ऊधमसिंह नगर जैसे हरियाली भरे शहरों के कर्मठ लोग अपने अपने गांव का विकास करने के लिए लाईन में खड़े न हों, ऐसा होना तो हजम भी नहीं होता है। चुनाव कि प्रकिया को आज नशा और पैसे के बिना परिभाषित कर पाना उतना ही असंभव है जितना पानी बिना दाल बनाने का वादा करना। पर यह हमारा किया धरा है। इससे एकदम से तो पार पाना असंभव है पर सही बुद्धिमत्ता का परिचय दिया जाए तो आने वाले समय में बदलाव की बयार चल सकती है।
पंचायत चुनाव को घर घर का चुनाव कहा जाता है क्योंकि इसका सीधा सम्बन्ध व्यक्तियों से होता है फिर भी इन चुनावों ने ग्रामीण अंचलों में मनभेद कि ऐसी खाई पाट दी है जिसे भर पाना नामुमकिन है। वैसे तो जनता इतनी समझदार है कि उसे समझाने लगे तो वो आपको ही समझाकर वह सब बता देगी जो आपकी कल्पना से परे होगा। पर हम फिर भी कोशिश करते रहेंगे कि अचानक आपके हितैषी बन बैठे शहरी बाबुओं को दूर ही रहने दो तो ज्यादा बढ़िया है। जो अपने खेत खलिहानों, चुल्हा चुलखानों को आबाद नहीं रख सकते वो गांव को आबाद करेंगे अपने आप में प्रश्न चिन्ह बनकर उनका परिचय करवाता है। इसलिए जागरूक बनें। अक्लमंद हो उसका लाभ उठाएं। और सही का चयन करें।