खुलेआम बिकते नेता

2016 का चर्चित विधायकों की खरीद फरोख्त का मामला अगर पर्दे के पीछे हो जाता तो किसी को कोई दिक्कत नहीं होती। परंतु महंगाई के साथ-साथ उन्होंने अपना भी भाव बढ़ाया जिससे सौदा नहीं हुआ और एक-दूसरे को टार्गेट कर खुद ही खुद के जाल में फंस गए। या यूं कहें अतिमहत्वकांक्षा ने सारा खेल बिगाड़ दिया। 
अब जब सजा का समय आया तो एक दो को छोड़कर सब निर्दोष हुए तो बड़ा अजीब सा लग रहा है। इस मुद्दे पर ज्यादा क्या लिखना कहीं कलम पर भी सीबीआई जांच न बैठ जाए!
राजनीति बिना खरीदे बिके नहीं हो सकती है यह जग जाहिर है। परंतु जबतक यह खरीदारी औकात में थी सब बढ़िया चलता था। पर जब मंहगाई बढ़ी तो सब गडबड हो गया। सब बिकने को तैयार बैठे हैं पर खरीदार गैरहाजिर है।
वैसे आजकल पंचायत चुनाव में भी खरीदारी का दौर चल रहा है। कोई क्षेत्र पंचायत सदस्यों को खरीद रहा है कोई जिला पंचायत सदस्यों को। सबका भाव अलग-अलग है। सुना है जिला पंचायत सदस्यों का तो प्रारंभिक भाव 15 लाख रूपये से शुरू है।
चाहे कोर्ट हो, सरकार हो, शासन हो, प्रशासन हो, सीबीआई हो, विजिलेंस हो सबको पता है कि पंचायत चुनाव में नवनिर्वाचित पंचायत प्रतिनिधियों की खुलेआम बोली लगती है, परंतु सब मूक दर्शक बनकर निहारते रहते हैं। आखिर इस संस्कृति को कौन रोकेगा? 
माननीय न्यायालय से यही अपेक्षित है कि कृपया इस प्रकरण पर भी स्वतः संज्ञान लेकर जिम्मेदार संस्थाओं को कार्यवाही करने के लिए आदेशित करे। हम जनता से उम्मीद करते हैं कि वह ईमानदारी से अपने मताधिकार का प्रयोग करे, परंतु जनता के चुने हुए प्रतिनिधि जब सब्जियों के भाव बिकेंगे तो क्या जनता को बिकने का अधिकार नहीं मिल जाता!