मेरा दगड्या

मेरा दगड्या


उत्तराखंड बने दो दशक हो चले हैं पर जिन मुद्दों को लेकर उत्तराखंड बना वह आज भी जस के तस हैं । पहाड़ पलायन के कारण पूरी तरह से वीरान हो गए हैं। और इसका मुख्य कारण हमारी अतिमहत्वकांक्षा है। इस अतिमहत्वकांक्षा को हमने नाम दिया है बेरोजगारी। दरअसल पुरानी पद्धति, नियम, कार्यशैली में हमने कोई भी परिवर्तन नहीं किया और उम्मीद की कि हमें घर बैठे सब मिल जाए। वर्ना हिमाचल और उत्तराखंड की भौगोलिक परिस्थिति में कोई खास अंतर नहीं है फिर भी हिमाचल हमसे कई गुना आगे है। इसका एक कारण और हो सकता है कि हिमाचल के राजनीतिक लोगों में कुछ कर गुजरने की इच्छाशक्ति कूट कूट कर भरी हुई थी। और हमारे यहां न तो राजनेताओं में और न ही जनता में इस तरह की इच्छाशक्ति है। इसलिए हम आज हाशिए पर खड़े हैं। परंतु अभी नहीं तो कभी नहीं के सिद्धांत को हमें प्रमुखता से अपनाना होगा और इसी को केन्द्र में रखकर काम करना होगा तभी हम कोई ठोस समाधान निकाल पाएंगे अन्यथा न करते करते हम खुद खो जाएंगे।


उत्तराखंड में कुछ ऐसे भी लोग हैं जो आज भी पहाड़ के दूरस्थ गांव में रह रहे आम आदमी के दर्द को महसूस कर रहे हैं और उस दर्द को कम करने के लिए उनके साथ दगड्या बनकर खड़े हैं। जी हां, दगड्या मतलब दोस्त। एक ऐसा दोस्त जो आपकी पीड़ा को समझ सके और उसका स्थायी निदान कर सके। जिस दगड्या कि बात हम कर रहे हैं वह एक संस्था है जिसके संस्थापक समाजसेवी कविन्द्र इष्टवाल और कर्नल आशीष इष्टवाल हैं। जो विलेज टूरिज्म को लेकर काम कर रहे हैं और आज उन्होंने अपने इसके अन्तर्गत करीब 15-20 लोगों को घर बैठे रोजगार दिया है।


उनके इस कार्य से जुड़े हुए हेमचन्द्र जी ने बताया कि वो हर महीने घर बैठे 10-12 हजार आसानी से कमा लेते हैं। और यह उनके लिए एकदम नया अनुभव है जिसमें बाहर से आए हुए लोगों को अपनी संस्कृति से रुबरु कराने से उन्हें आय भी हो रही है। इस बार उनके यहां नोएडा से गरीमा और चेन्नई से राजा गुरु आए हुए हैं। उन्होंने कहा कि हर बार नए लोगों से मिलकर नया अनुभव तो मिलता ही है साथ ही अपनी संस्कृति को और अधिक गहराई से समझने का अवसर भी मिलता है।


नोएडा से आई गरीमा और चेन्नई से आए राजा गुरु ने बताया कि ग्रामीण जीवनशैली को करीब से समझने का इससे बेहतर मौका कोई दूसरा नहीं हो सकता है। दगड्या के संस्थापक कविन्द्र इष्टवाल ने बताया कि यह एकदम नया कांसेप्ट है जिसमें बाहर से आने वाले लोगों को होटल में न ठहराकर ग्रामीणों के घर में ही ठहराया जाता है और उन्हें चूल्हे में बनी रोटी के साथ साथ मौसमानुसार पहाड़ी व्यंजनों को खिलाया जाता है।


उन्होंने कहा कि इसमें हमने एक चीज और जोड़ी है और वह है कि स्कूल पढ़ने वाले कक्षा 10 से बारह के बच्चों को जो भी रूचि रखते हैं स्कूल से छूटने के बाद उन ग्रामीणों जो इसमें लगे हुए हैं के साथ जुड़कर इसे भविष्य में स्वरोजगार के रूप में अपना सकें और घर बैठे आसानी से अच्छी खासी आय कमा सकें। यह अभी प्रारंभिक स्तर पर है। इसे हर व्यक्ति तक पहुंचाने की यथासंभव कोशिश की जाएगी।