छुंणक्याली दातुडी

उत्तराखंड की जीवनशैली लाजवाब है। फिर चाहे उत्तराखंड का खान-पान हो, रहन-सहन हो, कृषि यंत्र हो, पौशाक हो या फिर पुरानी संस्कृति के मकान हों। सब धार्मिक, आध्यात्मिक और वैज्ञानिक अनुसंधानों से भरे हुए हैं। आज हम आपको उत्तराखंड की घसयारियों की पहचान दातुडी वो भी छुंणक्याली से रुबरु करवा रहे हैं। एक पौराणिक मत है कि एक घसयारी जब घास काट रही थी तो उसे किसी कीड़े ने काट दिया। उस समय यह सब आम होने लगा। किसी को नहीं सूझा कि क्या किया जाए। फिर दाना सयाणों ने एक उपाय सुझाया कि क्यों न दातुडी के पीछे कुछ ऐसी चीज बांधी जाए कि घास काटने वाली घसयारी जैसे उसे चलाए वैसे ही उसके उपयोग से बजने वाली धुन सुनकर  घास में कोई कीड़ा पिटगा भाग जाए। धीरे-धीरे यह घसयारियों की पहचान बनती गई और एक वक्त ऐसा आया कि दगड्या - सौंज्डया अपनी सुआ अर्थात प्रेमिका को उसकी छुंणक्याली दातुडी को छुमडोठ सुनकर पहचान लेते थे। उत्तराखंड के जागर सम्राट प्रितम भरतवाण जी ने इसे अपने गीत के माध्यम से बखूबी प्रस्तुत किया है। पर दुर्भाग्य है कि पलायन कि मार ने हमारी इस पहचान को भी हमसे अलग कर दिया है। आज कल की बेटी ब्वारी टीकटाक, वाट्सअप और फेसबुक के अलावा और क्या चला सकती हैं जब उन्होंने इसके सिवाए देखा ही कुछ नहीं है।
परंतु घर गांव में रह रही हमारी माता बहनों ने आज भी इसे जीवित रखा है। यह उन अनमोल यादों को झरोखा है जो शायद लोटकर वापस तो नहीं आ सकता है पर एकांत में सुनहरे अतीत के साथ होंठों की हंसी और आंखों के आंसू जाहिर कर सकते हैं कि वो हमारे लिए क्या थे।