उत्तराखंड के हुए केजरीवाल

उत्तराखंड के दो दशक में एक भी मुख्यमंत्री ऐसा नहीं हुआ है जिसने उत्तराखंड की जनता के दिलों पर राज किया हो या फिर अपनी एक अमीट छाप छोड़ी होगी। सब आए, और गए राम बनकर रह गए। परंतु इससे बड़ा दुर्भाग्य क्या हो सकता है कि आज तक स्थायी राजधानी का निर्धारण नहीं हो पाया है। ऐसे में उत्तराखंड में बोली जाने वाली भाषाओं के उत्थान और संरक्षण के लिए कोई कार्य कर पाना मात्र एक दिवास्वप्न सा लगता है।
जो लोग अपनी कुर्सी के साए से बाहर नहीं निकल पा रहे हैं वो क्या उत्थान और संरक्षण की बात करेंगे?
परंतु इन सबसे इतर दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने गढ़वाली, कुमाऊँनी और जौनसारी भाषा के संरक्षण के लिए अकादमी का गठन कर उत्तराखंड के वर्तमान और पूर्व मुख्यमंत्रियों को आईना दिखाया है। अगर इच्छाशक्ति हो तो सबकुछ संभव है, अन्यथा ना नुकूर करते करते पांच साल कब बित जाएंगे पता भी नहीं चलेगा।
अकादमी का गठन सुखद अनुभव कराती है परंतु इस से इतर एक सवाल यह भी है कि क्या हम अपनी बोली भाषा को जीवित रखने का प्रयास कर रहे हैं। शहरों में आते ही हम भी तो अपनी मातृ भाषा को भूल से जाते हैं। आज हमारी भाषा में बनने वाली फिल्मों का ही हाल देख लीजिए। लगने से पहले ही हाॅलों से हट जाती है। उनको दर्शक मिलने दुभर हो रखें हैं।
केजरीवाल सरकार का यह कदम हमारे लिए भी एक संदेश है कि अपने संस्कार, संस्कृति और बोली भाषा को आगे बढ़ाने के लिए हमें भी प्रयास करना चाहिए। तभी हम समृद्ध बन पाएंगे।
केजरीवाल सरकार ने अकादमी के गठन के बाद  उसके उपाध्यक्ष के पद पर मशहूर गायक और कलाकार हीरा सिंह राणा को नामित किया है।
हम यही कह सकते हैं कि केजरीवाल भी उत्तराखंड के हो गए।