ऊधमसिंह नगर जिले में मुख्य रूप से खमीटा, किच्छा, नानकमत्ता और सितारगंज के 144 गांवों में निवास करने वाला थारू समुदाय उत्तराखण्ड का दूसरा सबसे बड़ा ;जौनसारी के बादद्ध जनजातीय समुदाय है। उत्तराखण्ड के अलावा ये उ.प्र. के लखीमपुर, गोंडा, बहराइच, महराजगंज, सि(ार्थनगर, आदि जिलों में, बिहार के चंपारण तथा दरभंगा जिलों तथा नेपाल के पूर्व में भेंची से लेकर पश्चिम में 'महाकाली' नदी तक तराई एवं भाॅवर क्षेत्रों में पफैले हुए हैं।
उत्पत्तिः सामान्यतः थारूओं को किरात वंश का माना जाता है जो कई जातियों एवं उपजातियों में विभाजित हैं। थारू शब्द की उत्पत्ति को लेकर विद्वानों में मतभेद है। कुछ विद्वान राजस्थान के थार मरूस्थल से आकर बसने के कारण इनका नाम 'थारू' पड़ने का समर्थन करते हैं तो कुछ अन्य विद्वान कहते हैं कि 'थार' का शाब्दिक अर्थ है 'मदिरा' और 'थारू' का अर्थ 'मदिरापान करने वाला'। अतः अत्यधिक मात्रा में मदिरापान करने के कारण ये लोग 'थारू' कहलाते हैं।
शारीरिक गठनः ये लोग कद में छोटे, पीत वर्ण, चैड़ी मुखाकृति तथा समतल नासिका वाले होते हैं जो कि मंगोल प्रजाति के लक्षण हैं। इनके पुरुषों की तुलना में स्त्रिायां अधिक आकर्षक तथा सुंदर होती है।
वेशभूषाः इनके पुरुष हिन्दूत्व के प्रतीक के रूप में बड़ी चोटी रखते हैं तथा धोती पहनते हैं। जबकि स्त्रिायां रंगीन लहंगा, ओढ़नी, चोली और बूटेदार कुर्ता पहनती हैं तथा शरीर पर गुदना गुदवाती और आभूषण पहनती हैं।
आवासः ये लोग अपना मकान बनाने के लिए लकड़ी और नरकुल का प्रयोग करते हैं। इनके मकान उत्तर-दक्षिण की ओर होते हैं, जबकि मकान में प्रवेश द्वार दक्षिण के आखिरी कमरे से पूर्व दिशा की ओर होता है।
थारू की एक उपजाति 'उल्टहवा' का प्रवेश द्वार दक्षिण के बजाए उत्तर के कमरे से होता है।
भोजनः इनका मुख्य भोजना चावल और मछली है। स्त्रिायां अपने द्वारा मारी हुई मछलियंा खाती हैं। पुरुषों द्वारा स्पर्श की गई मछलियां को स्त्रिायां नहीं रखती हैं।
मदिरा इनका मुख्य पेय है, जिसे वे चावल द्वारा स्वयं निर्मित करते हैं जिसे वे 'जाड़' कहते हैं।
विवाह प्रथाः थारूओं में वर पक्ष की ओर से किसी मध्यस्थ व्यक्ति द्वारा विवाह की बातचीत चलती हैं। पहले इनमें बदला प्रथा अर्थात् बहनों के आदान-प्रदान का प्रचलन था लेकिन अब 'तीन टिकठी प्रथा' प्रभावशाली है। तीन टिकठी प्रथा में एक-दूसरे की बहन से विवाह न करके उसी परिवार की किसी निकटतम कन्या से विवाह होता है। विवाह कार्य अधिकांशतः पफागुन के शुक्ल पक्ष में होता है।
इनमें विधवा विवाह की भी प्रथा है।
परिवारः थारूओं में संयुक्त परिवार प्रथा मिलती है, जिसका मुखिया परिवार का सबसे वृ( व्यक्ति होता है। परिवार में भिन्न-भिन्न कार्य भिन्न-भिन्न सदस्यों को सुपुर्द होते हैं, जो अपने कार्यों के प्रति पूर्ण रूप से उत्तरदायी होते हैं।
इनमें पितृसत्तात्मक, पितृवंशीय एवं पितृस्थानीय पारिवारिक परम्परा पाई जाती है।
धर्मः ये लोग हिन्दू धर्म को मानते हैं और देवताओं को प्रसन्न करने के लिए सूअर एवं बकरी की बलि चढ़ाते हैं। लेकिन जगन्नाथी देवता पर केवल दूध चढ़ाते हैं। ये काली, भैरव, महादेव सहित लगभग 30 देवों की उपासना करते हैं।
दशहरा, होली, दीपावली, माघ की खिचड़ी, कन्हैया अष्टमी और बजहर इनके प्रमुख त्यौहार हैं। बजहर नामक त्यौहार ज्येष्ठ या बैशाख में मनाया जाता है। दीपावली को ये शोक के रूप में मनाते हैं। होली पफाल्गुन पूर्णिमा से आठ दिनों तक मनाया जाता है, जिसमंे स्त्राी और पुरुष दोनों मदिरा पीकर नृत्य करते हैं।
ये लोग मृत्यु के बाद शव को दपफनाते हैं तथा मिट्टी देकर लौटते समय चैराहे पर एक छोटी सी पुलिया बनाते हैं। उनकी मान्यता है कि इससे मृतात्मा संकटों को पार कर लेगी।
अर्थव्यवस्थाः थारू जनजाति का आर्थिक जीवन कृषि एवं पशुपालन पर आधारित है। ये मुख्य रूप से धान की खेती करते हैं।
थारू