अपने ही देष में मुझको
अपनी पहचान बतानी पड़ती है
भीख मांगने को मजबूर मुझे
पेट की आग को रोटी करती है
हूँ मजबूर नौ जवान मैं मेरा बूढ़ा बाप
आप-आप कहते हुए जुल्मों के आगे
माँ बहन और बीबी षिकार होती है .....
देख बर्बादी के सपनों को अपने
मुझे पलके अपने भीगोनी पड़ती हैं।
भविश्य में भी उज्जवल बनाना चाहता हूँ
अपना अपने परिवार वालों का आज
मगर सुन पढ़के रह जाता हूँ विचार
सरकार और सरकारी खोखले वादों का
सहायता, रक्षा, स्वरोजगार योजनाओं का
आवाजें बुलन्द मगर काम बडे मंद हैं इनके
मांग के अपने कर्ज से ज्यादा लागत देनी पड़ती है।
हैं एक भारत देष मेरा लेकिन फिर भी
अलग-अलग राज्यों की दीवार पड़ती है
हैं सारे सब भाई मेरे अपने लेकिन
धर्म जाति विवादों की तस्वीर दिखानी पड़ती है।
महेष अकेला कैसे बदलेगा सबके विचार
मनचला हर एक दिल की तरकीब यहां चलती है।