दीपावली महापर्व

है कहीं इतिहास या माइथोलाॅजी में ऐसी मिसाल, कि 'राजशाही' तक में 'लोकमत' को सर्वोपरि रख किसी राजा ने अपनी रानी तक का परित्याग कर दिया हो। अपनी माता के कहने पर राजसी ठाठ-बाठ छोड़ कर चैदह बरस का समय बनवास में व्यतीत किये हों! हमारे ऐसे ही प्रकाश स्तम्भ, प्रणम्य पूर्वज महानायक राम से जुड़ा है, हमारा यह दीपावली महापर्व। 
उजाले का पर्व है दीपावली। उमंग, उत्साह और उम्मीद का उत्सव। एक विराट सांस्कृतिक धरातल पर खड़ा जीवन से जुड़ाव का पर्व। तभी तो इसकी सांझ पर हमारे देश का शायद ही कोई ऐसा कोना होगा, जहाँ रोशनी न जाती हो।  शायद ही कोई ऐसे गली-मोहल्ले, गांव बचते हों जहां पटाखे न पफूटते हों। 
दुनियां में कोई भी ऐसा पर्व नहीं जिस पर हर घर जगमगा जाये। ऐसा जश्न जिसकी रोशनी में साल की सबसे गहरी काली रात ;कार्तिक अमावस्याद्ध भी जगमगा जाये। उस पर भी अकेला त्यौहार नहीं है, बल्कि त्यौहारों का भरा-पूरा एक कुनबा। जो नवरात्रि से शुरू होता है पिफर विजयादशमी, करवा चैथ, अहोई पूजन से लेकर धन तेरस, लक्ष्मी पूजन और दीपावली पर्व पिफर भैया दूज, छठ पर्व और एकादशी यानि बूढ़ी दीपावली। हमारी चेतना को इसी तरह उत्तरोत्तर ऊँचाई की ओर ले जाते हैं ये पर्व। दीपावली ऐसा ही महापर्व है, जो आलोकित ही नहीं करता आत्मावलोकित भी करता है। 
सोचो एक अदने से नेता का ही जश्न कितना रोमांचित करता है। पिफर ये तो रामलला है, मर्यादा पुरूषोत्तम हैं। तो कितना भव्य होगा उनका जश्न! अपनी अज्ञानता में हम इसे सिपर्फ 'विजयोत्सव' या 'रावण वध' का जश्न कहने की महाभूल कर बैठते हैं। किसी के खात्मे या परामव के जश्न की हमारी कभी संस्कृति नहीं रही है। वरना रावण जैसे महाबली के धराशाई होते ही यु( के मैदान में जश्न के बजाय सन्नाटा क्यों पसर जाता! क्यों लक्ष्मण को लेकर राम बतौर जिज्ञासु रावण के चरणों के पास खड़े नजर आते! यहीं क्या, महाभारत तक में भी हम यही पाते हैं। यु( जीतने के जश्न के बजाय श्रीकृष्ण युधिष्ठर को लेकर विनीत भाव से शरशÕया पर पड़े भीष्म के पास पहुंचते है। है ना अद्भुत!
यह तो सिपर्फ बुराई के खात्मे का धरम है, दायित्व है। अपना दायित्व पूरा करने का जश्न कैसा! जश्न है-कई युगों जैसे लगे - चैदह बरस बाद आज अपने राम लला लौटे हैं अयोध्या में। अपनी बेसब्री का अंत अपनी प्रतीक्षा पूरी होने, अपनी साधना सपफल होने का जश्न है यह। इसलिए सिपर्फ अपनी उपलब्धिभर अथवा इतिहास की घटना अथवा उनका जश्नभर नहीं है हमारे उत्सव। ये सामूहिक जीत, सामूहिक उल्लास के साथ-साथ आत्मावलोकन व दर्शन का एक पूरा पैकेज है। इसलिए हम आतिशबाजी करते हैं तो दीये भी जलाते हैं। इस कामना के साथ कि बाहर के साथ-साथ हमारे अंदर का भी अंधकार मिटे और इस दर्शन के साथ कि कहीं और दीये हैं कि नहीं।