उत्तराखण्ड की यह यात्रा गढ़वाल व कुमायूं के सांस्कृतिक एकता का प्रतीक है। यह विश्व की अनोखी पदयात्रा है, जिसमें चमोली के कांसुवा गांव के पास स्थित नौटी के नन्दा देवी मंदिर से होमकुण्ड तक की 280 किमी. की यात्रा 19-20 दिन में पूरी की जाती है। इस यात्रा में कुमाऊँ, गढ़वाल तथा देश के अन्य भागों के अलावा विदेश के लोग भी भाग लेते हैं।
द राजजात यात्रा प्रत्येक 12वें वर्ष चांदपुरगढ़ी के वंशज कांसुवा गांव के राजकंुवरों के नेतृत्व में आयोजित की जाती रही है। यही कारण है कि इस यात्रा को राज जात ;यात्राद्ध कहा जाता है।
द पार्वती का विवाह कैलासपति शंकर से हुआ था। पार्वती मदरांचल पर्वत की पुत्राी थी इसलिए उत्तराखण्ड पार्वती या नन्दा देवी को अपनी विवाहित बेटी की तरह मानते हैं और यह यात्रा उनके विदाई के रूप में की जाती है।
द जिस वर्ष यात्रा आयोजित होनी होती है उस वर्ष कांसुवा के लेाग ऐसा मानते हैं कि बसन्त पंचमी को नन्दा देवी मायके ;कांसुवा गांव के पास नौटी देवी मंदिर मेंद्ध आ गई हैं।
द नन्दा देवी के विदाई यात्रा में आगे-आगे चार सींगों वाला बकरा ;मेढ़ाद्ध चलता है। जिस वर्ष यात्रा होनी होती है, उस वर्ष ऐसा बकरा कहीं न कहीं अवश्य मिल जाता है।
द यात्रा के लिए निर्धारित तिथि ;नन्दाष्टमीद्ध को कांसुवा के कुंवर चैसिंगिया मेढ़े ;खाडूद्ध तथा रिंगाल से निर्मित सुन्दर ;छंतोलीद्ध लेकर कांसुवा के पास नौटी मेवी मन्दिर पहुंचते हैं। वहां छंतोली राजगुरू नौटियालों को सौंप दी जाती है। उस दिन नौटी गांव में बड़ा मेला लगता है। चैसिंगिया खाडू की पीठ पर ऊन के बने दो मुंहे झोले में देवी की स्वर्ण प्रतिमा को आभूषण व भेंट सजाकर रखी जाती है और नौटी से यात्रा का प्रारम्भ होकर वनाणी,बैनोली, कांसुवा होते हुए चांदपुर गढ़ी पहुंचती है, जहां मेला लगता है और टिहरी राजपरिवार के लोग देवी का पूजन करते हैं। एक ओर नौटी से राजजात प्रारम्भ होती है दूसरी ओर राज्य के विभिन्न क्षेत्रों, यथा कुरूड़, लाॅता, अल्मोड़ा, कोट तथा डंगोली होते जाते हैं। जिस गांव में यात्रा पहुंचती है वहां यात्रियों का स्वागत होता है। रात को नन्दा देवी का जागर लगता है। विदाई गीत, झोड़े, चाॅचरी आदि गाए जाते हैं।
द चांदपुर के बदा तोप, भगोती, मींग, थराली होते यात्रा नन्दकेसरी पहुंचती है, जो कि यात्रा का 10वां पड़ाव है। यहीं पर कुमाऊँ के लोग अपने कुलदेवी की डोलियों के साथ यात्रा में सम्मिलित होते है। यहां राजराजेश्वरी नन्दा का मिलन बधाण क्षेत्रा की नन्दा और भोजपत्रा छंतोलियों से होता है।
द तेरहवें दिन यात्रा का पड़ाव बाण है। यहां नन्दादेवी के भारवाहक लाटू देवता भी यात्रा में सम्मिलित हो जाते हैं। यहां लाटू देवता का एक मंदिर है।
द बाण पहुंचते-पहुंचते देवताआंें और छंतोलियों की संख्या लगभग 300 तक हो जाती है। बाण के बाद गांव या बस्तियां नहीं हैं। इसलिए आगे के लिए भोजन, आदि यात्रियों को स्वयं ढोकर ले जाना पड़ता है।
द इसके बाद यात्रा रिणकी घाट, गोरीले पातानल होते हुए बेदनी कुण्ड पहुंचती है। यहां नन्दादेवी का एक मंदिर है।
द बेदनी से लगभग 10 किमी. दूर निराली धार है जहां पत्थरों का एक गोल घेरा सा बना हुआ है इस स्थान को पातर-नचैणियां कहा जाता है। इससे आगे महिलाएं यात्रा में सम्मिलित नहीं होती हैं।
द पातर नचैणियां के बाद कैलुवा, विनायक, बगुवावासा चिड़िनाग होते हुए यात्रा 5,835 मीटर ऊंची चोटी रूपकुण्ड पहुंचती है जहां सैकड़ों की संख्या में मानव कंकाल पड़े हुए हैं।
द ज्यूंरागली दर्रा पार कर यात्रा शिला समुद्र पहुंचती है, जो कि सोलहवां पड़ाव है। यहां वायुदाब कम और ठण्डी हवाओं से बपर्फीले शिखर टूटने का खतरा बना रहता है।
द कठिन मार्ग को पार करते हुए यात्रा ;भाद्रपद मास की नवमी तिथि कोद्ध होमकुण्ड पहुंचती है। लगभग 4, 061 मीटर की ऊँचाई पर स्थित यह स्थान त्रिशूली पर्वत की तलहटी में है। यहां पर एक छोटा सा हवनकुण्ड बना है। इस स्थान पर पूजा-पाठ करने के बाद चार सींग वाले खाडू पर लोगों द्वारा दी गई भेंट बांध दी जाती है और खाडू को छोड़कर यात्रा दूसरे मार्ग से वापस आती है। लौटते समय यात्रा चंदनिया घट, सुतोल होते हुए नौटी पहुंचती है।
नन्दा राजजात यात्रा