राजी 

राजी मुख्यतः पिथौरागढ़ जनपद के धारचूला, कनाली, छीना एवं डोडीहाट विकास खण्डों के 7 गांवों के अलावा चम्पावत के एक गांव में निवास करते हैं। 
प्राचीन काल में गंगा पठार के पूर्व से लेकर मध्य नेपाल तक के क्षेत्रा में अग्नेयवंशीय कोल-किरात जातियों का निवास था। कालान्तर में इन्हीं के वंशज राजी के नाम से जाने गए। 
इनको बनरौत, बनराउत, बनरावत, वनमानुष, जंगल के राजा आदि नामों से भी संबोधित किया जाता है, लेकिन राजी नाम अधिक प्रचलित है। 
भाषाः इनकी भाषा में तिब्बती और संस्कृत शब्दों की अधिकता पायी जाती है, किन्तु मुख्यता मंुडा भाषा की होती है। इस बोली का प्रयोग ये स्थानीय रूप से ही करते हैं, वाह्य संपर्क हेतु ये कुमाऊँनी का प्रयोग करते हैं। कुल मिलाकर इनकी भाषा हिंदी और पहाड़ी का सम्मिश्रण है। 
ये अधिकांशतः वनों में निवास करते हैं पर कहीं-कहीं गुपफाओं और झोपड़ियों में भी निवास करते हैं। 
सामाजिक व्यवस्थाः ये हिंदुओं की तरह अपने गोत्रा में विवाह नहीं करते हैं। विवाह के लिए बातचीत किसी मध्यस्थ के द्वारा शुरू की जाती है। इनमें वधू मूल्य का प्रचलन है, जिसका आधा भाग विवाह के पहले दे दिया जाता है। इस धन का अधिकांश भाग वधू की संपत्ति होती है। विवाह विच्छेद का भी प्रचलन है तथा पुनर्विवाह भी संभव है। 
धर्म एवं विश्वासः ये जंगल के देवता की पूजा करते हैं तथा उसे प्रसन्न रखने के लिए उन स्थानों पर पशुओं की हड्डियां गाड़ते और टांगते हैं। इन लोगों का विश्वास है कि देवी-देवता पहाड़ की चोटी, नदी, तालाब और कुओं में रहते हैं। जंगल से घर आने में यदि कोई राजी बीमार हो जाता है तो उन्हें जंगल के देवता के नाराज हो जाने का विश्वास हो जाता है। इनका मुख्य देवता बाघनाथ है। 
इनमें जिस स्थान पर किसी की मृत्यु हो जाती है उस स्थान पर उसके बाद कोई नहीं रहता है। मृतकों को गाड़ने व जलाने की परम्परा है। 
रीति-रिवाजः कारक ;कर्कद्ध और मकारा ;मकरद्ध की संक्रान्ति इनके दो प्रमुख त्यौहार हैं। इन त्यौहारों पर सभी परिवारों में पकवान आदि बनाये जाते हैं। इनमें कंडाली नामक उत्सव प्रत्येक 12 वर्ष बाद मनाया जाता है। 
अर्थव्यवस्थाः कुछ समय पूर्व तक ये लकड़ी के घरेलू समान या लकड़ी के गट्ठर से आस पास के गांवों में विनियम द्वारा अपने आवश्यकता की सामग्री प्राप्त करते थे। उन्हें जिन चीजों की आवश्यकता होती थी उसका एक छोटा सा टुकड़ा अपने द्वारा बनाये गये वस्तुओं या लकड़ी के गट्ठर में चिपकाकर रात के समय आस-पास के गांवों में जाकर लोगों के घर के बाहर छोड़ आते थे। अगले दिन लोग उस सामग्री को लेकर उसी स्थान पर उनके आवश्यकता की सामग्री रख देते थे, जिसे वे रात्रि में उठा ले जाते थे। ये काष्ठ कला में निपुण होते हैं। ये लोग झुमविधि से थोड़ी बहुत कृषि भी करते हैं। वन की कटाई पर रोक लगाने के कारण ये अब बाहर निकलकर मजदूरी भी करने लगे हैं।