इनका जन्म मई 1916 में टिहरी के जौल गांव में हुआ। इन्होंने देहरादून के हिन्दू नेशनल कालेज में पढ़ाते हुए उच्च शिक्षा में कई डिग्रियां ली। 1930 में 14 वर्ष की अल्प आयु में इन्होंने देहरादून में नमक सत्याग्रह में भाग लिया और 15 दिन की जेल काटी थी। 1938 में श्रीनगर में आयोजित राजनैतिक सम्मेलन जिसमें नेहरू, विजयलक्ष्मी पंडित आदि नेताओं ने भाग लिया था, में इन्होंने गढ़वाल के दोनों खण्डों की एकता पर जोर देते हुए कहा था कि - यदि गंगा हमारी माता होकर भी हमें आपस में मिलाने की बजाय दो हिस्सों में बांटती है तो हम गंगा को काट देंगे।
23 जनवरी 1939 को देहरादून में 'टिहरी राज्य प्रजा मण्डल' की स्थापना के पश्चात् उन्होंने इस संगठन को नई दिशा दी। उनका विचार था कि 'यदि हमें मरना ही है तो अपने सि(ान्तों और विश्वास की सार्वजनिक घोषणा करते हुए मरना श्रेयस्कर है।
पफरवरी 1939 में जवाहर लाल नेहरू की मध्यक्षता में लुधियाना ;पंजाबद्ध में आयोजित अखिल भारतीय देशी राज्य लोक परिषद् के अधिवेशन में उन्होंने प्रजा मण्डल के प्रतिनिधि के रूप मंे भाग लिया। इसमें उन्हें हिमालयी प्रान्तीय देशी राज्यों का सच्चा प्रतिनिधि माना गया था। सन् 1942 में प्रजा मण्डल की सपफलता के लिए वे सेवाग्राम, वर्धा में महात्मा गांधी से मिलने गये थे। वापस आने पर टिहरी राज्य की पुलिस ने उन्हें राज्य की सीमा के बाहर निकाल दिया। 27 दिसंबर 1943 को उन्होंने जब पुनः टिहरी में प्रवेश करना चाहा तो 30 दिसम्बर 1943 को टिहरी कारागार में बंद कर उन्हें यातनाएं दी जाने लगी और मापफी मांगने के लिए बाध्य किया गया, किन्तु सुमन ने उत्तर दिया कि 'तुम मुझे तोड़ सकते हो, मोड़ नहीं सकते।'
21 पफरवरी, 1944 को श्रीदेव सुमन पर राजद्रोह का मुकदमा चलाया गया। और किस भी सरकारी वकील को उनकी पैरवी करने की स्वीकृति नहीं दी गई। उन्होंने अपने ऊपर लगे झूठे आरोपों की खिलापफत की और कहा कि सत्य और अहिंसा के सि(ान्त पर विश्वास होने के कारण मैं किसी के प्रति घृणा और द्वेष का भाव नहीं रखता।
29 पफरवरी, 1944 को उन्होंने जेल कर्मचारियों के दुव्र्यहार के विरोध में अनशन प्रारम्भ किया, और तीन मांगें ;प्रजा मण्डल को मान्यता देंऋ मुझे पत्रा व्यवहार करने की स्वतंत्राता दी जाएऋ और मेरे विरू( झूठे मुकदमों की अपील राजा स्वयं सुनेद्ध राजा के पास भेजी और कहा कि यदि 15 दिन में इन मांगों का उत्तर न मिला तो मैं आमरण अनशन प्रारम्भ कर दूंगा। उत्तर न मिलने पर उन्होंने 3 मई, 1944 से अपना मारण अनशन प्रारम्भ किया। उनसे कहा गया कि यदि भूख हड़ताल तोड़ दें तो आपको मुक्त कर दिया जायेगा लेकिन उन्होंने अपना अनशन तोड़ने से इंकार कर दिया और टिहरी की स्वतंत्राता के लिए 25 जुलाई 1944 को 84 दिनों की भूख हड़ताल के पश्चात् शहीद हो गए। वे अक्सर कहा करते थे, 'मैं अपने प्राण दे दूंगा किन्तु टिहरी राज्य के नागरिक अधिकारों को सांमती शासन के पंजे से कुचलने नहीं दूंगा।'
श्रीदेव सुमन