उत्तराखण्ड में पंवार वंश

जनश्रुतियांे के अनुसार 887 ई0 में गुजरात के धार मालवा क्षेत्रा का राजकुंवर कनकपाल उत्तराखण्उ की यात्रा पर आया तथा चांदपुरगढ़ के राजा भानुप्रताप ने अपनी पुत्राी का विवाह कनकपाल से किया तथा उसे अपना उत्तराधिकारी घोषित किया। कनकपाल के पश्चात् 36 राजाओं तक के शासन काल के विषय में कोई जानकारी प्राप्त नहीं होती। 
 37वें शासक अजयपाल को पंवार वंश का वास्तविक संस्थापक माना जाता है, क्योंकि उसने गढ़वाल क्षेत्रा के समस्त 52 गढ़ों को विजित कर एक विस्तृत राज्य की स्थापना की। 1512 में इसने अपनी राजधानी चांदपुरगढ़ से देवलगढ़ स्थानांतरित की तथा कुछ वर्षों पश्चात् ;1517द्ध में अलकनंदा के बाएं तट पर श्रीनगर स्थानांतरित की जो आगे के वर्षों में भी पंवार राजाओं की राजधानी रही। 
 43वें राजा बलभद्र पाल 1575 में शासक बने। इन्हें दिल्ली के बादशाह द्वारा शाह की उपाधि प्रदान की गई थी जिसके पश्चात् पंवार वंश के सभी शासकों ने अपने नाम के आगे इस उपाधि का प्रयोग किया। इनके पश्चात् मानशाह शासक बने, मनोदय नामक काव्य के रचनाकार भरत कवि इसके दरबारी थे। इसी के समय लक्ष्मीचंद ने आठ बार गढ़वाल क्षेत्रा पर आक्रमण किया था। इनके पश्चात् महिपतिशाह शासक बना इनके समय रिखोला लोदी के नेतृत्व में गढ़वाली सेना ने तिब्बत पर आक्रमण किया। इनकी ;बत्र्वालद्ध तलवारों की पूजा आज भी तिब्बत के बौ( मंदिरों में होती है। 
 इसके पश्चात् पृथ्वीपति शाह शासक बना। अल्पव्यस्क होने के कारण महीपति शाह की पत्नी कर्णावती 1635 से 1646 तक संरक्षिका के रूप में रही। 1640 में मुगल मनसबदार नवाजत खां ने देहरादून पर आक्रमण किया परन्तु रानी कर्णावती के सैनिकों ने मुगल सैनिकों के नाक-कान काटकर भगा दिया। इसी कारण रानी को नाक काटी रानी कहा जाता है। देहरादून की प्रसि( 'राजपुर कैनाल' का निर्माण भी रानी कर्णावती द्वारा ही कराया गया था। 
 पृथ्वी पतिशाह के समय ही मुगल शहजादा सुलेमान शिकोह ने गढ़वाल क्षेत्रा में शरण ली किन्तु इसके पुत्रा मेदनीशाह द्वारा शहजादे को राजाजय सिंह के पुत्रा राम सिंह को सौंप दिया। इसके पश्चात् पफतेहशाह शासक बना उसके दरबार में प्रसि( कवि मतिराम, रतनकवि, भूषण इत्यादि थे। 1699 में इसी के समय गुरू राम राय देहरादून आए और इसी कारण इस क्षेत्रा का नाम 'देहरादून' पड़ा।
 इसके पश्चात् प्रदीपशाह शासक बना इसके समय 1742 ई0 में रोहिला सरदार रहमत खां ने कुमायूं क्षेत्रा पर अधिकार कर लिया था, अतः कुमायूं के चाणक्य हर्ष देव जोशी ने ललितशाह से कुमायूं क्षेत्रा पर आक्रमण कर कब्जा करने का अनुरोध किया। अतः ललितशाह ने कुमाऊं क्षेत्रा को विजित कर अपने पुत्रा प्रद्युम्नशाह को कुमाऊं की गद्दी पर बैठाया। 1780 में ललितशाह की मृत्यु के पश्चात् जयकृतशाह गढ़वाल का शासक बना, किन्तु 1786 में उसे दरबारी षड्यंत्रा का शिकार होना पड़ा। तत्पश्चात् प्रद्युम्न शाह ने गढ़वाल का शासन संभाला किन्तु कुमायूँ क्षेत्रा पर इनके जाते ही मोहनचंद ने पुनः कब्जा कर लिया। 1790 में हर्षदेव जोशी के निमंत्राण पर गोरखा नरेश खबहादुर ने कुमायूँ क्षेत्रा पर आक्रमण कर वहां गोरखा शासन स्थापित किया। 
 1803 में गोरखासेना ने अमरसिंह थापा व हस्तीदल चैतरिया के नेतृत्व में गढ़वाल क्षेत्रा पर आक्रमण किया व 14 मई 1804 को खुड़बुड़ा के यु( में गोरखा सेना ने राजा प्रद्यम्नशाह को पराजित कर गढ़वाल क्षेत्रा में भी गोरखा शासन स्थापित किया।