यह कैसी स्वतंत्रता

 आयुष के छात्र लगभग दो माह से आंदोलनरत रहे उनकी पीड़ा को किसी ने नहीं समझा, 108 के कार्मिक भी आंदोलनरत रहे पर उनकी नौकरी जाने का गम किसी ने नहीं जाना, उपनल कर्मी भी मुखर रहते हैं उनकी पीड़ा भी सबकी समझ से परे रहती है, राज्य को दो दशक में भी स्थायी राजधानी नहीं मिल पाती फिर भी किसी को कोई असर नहीं होता, सारे अधिकारी, कर्मचारी देहरादून में डेरा डाले बैठे रहते हैं तब भी खामोशी रहती है, एक स्कूटर में 80 लीटर पेट्रोल आता है तब भी सब चुप, एक गर्भवती स्त्री सड़क पर बच्चे को जन्म देती है फिर भी सब चुप, एक स्त्री को किराया न होने पर गाड़ी से नीचे उतार दिया जाता है, एक माननीय खुलेआम हाथों में हथियार दिखाकर सबको ललकारता है पर सब चुप, अवैध खनन का धंधा खुलेआम होता है यहां तक कि मित्र पुलिस पर भी कई बार आक्रमण होता है फिर भी सब चुप, किट्टी पार्टी के नाम आए दिन लूटती आम जनता तब भी एक्शन नहीं, अवैध शराब का धंधा कई मौतों का कारण बनता है सब चुप, दून अस्पताल में मरीजों को फर्श पर, स्टेचर पर, बैठने की टेबल पर ग्लूकोज चढ़ाकर फार्मेल्टी की जाती है सब चुप, गड्ढों वाली सड़कें जान लेने को आतुर सब चुप, बस एक कलम खुलकर कुछ लिख दे तो सब उसके पीछे! गजब!
यह स्वतंत्रता है। जहां जरूरी मुद्दों पर बेशक सालोंसाल कोई कार्यवाही न हो पर ऐसे मुद्दों पर शीघ्र हो जाती है जहां लगता है कि काम पर प्रश्न चिन्ह लगाने वाले हैं? ऐसा दौर तो अंग्रेजों के शासन के दौरान भी न रहा होगा कि कोई सच लिखने से पहले सौ बार सोचे। ऐसी परिस्थिति को देखकर कुछ लाइनें आपके लिए - 
वो गुलामी का दौर था यह आजादी का दौर है
बेशक सूरत बदल गई पर सियासत आज भी वही लगती है। 
हम कल भी दर्शक थे आज भी दर्शक हैं और लगता है ऐसे ही आंखे बंद करके दर्शक बने रहेंगे।
व्यवस्था में जबतक किसी काम की समीक्षा नहीं होगी तब तक कैसे अंदाजा लगाया जा सकता है कि वह जनहित में हो रहा है।
व्यवस्था को सुधारना है तो सबके लिए और सबके साथ एक जैसा विधि सम्मत व्यवहार किया जाना चाहिए फिर चाहे नेता हों, अफसर हों, विधायक हों या फिर कोई आम जनता।