मैं भी

 



मैं भी
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पुस्तैनी घर छोड़ कर
घर घर खेल रहा हूँ
सुकून मिले जहाँ
वो घर ढून्ड रहा हूँ
इन पक्के रस्तो पे
सम्भल कर चलता
बचपन की वो मिट्टी
वो रस्ता ढून्ड रहा हूँ
इस भीड़ में पहचान
बना तो ली मगर
अकेला खड़ा हूँ
बचपन के यारो को
खोज रहा हूँ
रह तो शहर में रहा हूँ
आत्मा मेरे गाँव में है
एशो आराम के लिए
सुकून खो रहा हूँ
बडी बड़ी इमारतो में
कैदी बन गया हूँ
अपनी आजादी मै
गाँव छोड़ आया हूँ
जब से छोडा गाँ व मैने
सासे चल रही है मगर
मै जिन्दा नहीं हूँ
अब इस मोड़ पर खडा हूँ
न शहर छूट सकता है
न गाँव भूल सकता हूँ
     सन्दीप गढ्वाली... cr