रेडियो मोबाइल से बेहतर 

उत्तराखंड की भौगोलिक परिस्थिति के अनुसार यहां के निवासियों का संचार तंत्र रेडियो हर ओने-कोने में उस समय भी बेहतर काम करता था जब यहां सड़कों का जाल नहीं बिछा था, मोबाइल सुविधा नहीं थी, परंतु आज स्थिति यह है कि सूचना एवं प्रौद्योगिकी ने लाजवाब तरक्की बेशक की हो पर मोबाइल नेटवर्क जरूरत पड़ने पर ठप्प पड़ जाता है। कहीं-कहीं तो स्थिति ऐसी भी है कि मोबाइल रखना भी एक गुनाह लगता है। 
मैं यहां मोबाइल नेटवर्क को लेकर हैरान नहीं हूं बल्कि रेडियो को लेकर खुश हूं कि आज भी दूरस्थ क्षेत्रों में रेडियो पहले की तरह हमसफर बनकर सुबह-शाम-दिन में लोगों को दिन दुनिया की दास्तां सुना रहा है। परंतु पहले कभी आम दिखने वाला दृश्य आज ढूंढे भी नहीं मिलता है। कहीं कोई बिरले ही हैं जिन्होंने अपने जीवन के महत्वपूर्ण बसंत अपनों की राह में बिता दिए हैं उन्हीं के पास रेडियो मिल जाएगा।
तन्हा सफर की दास्तां बताता रेडियो स्वर्णिम सफर का गवाह भी रहा है। काश कोई फिर से उसी दौर को लौटा दे वीरान पडे मकानों को आबाद कर दे। इसलिए तो रेडियो का दौर मोबाइल से कही गुना बेहतर था।