ऐसी कविता पहले नहीं पढ़ी होगी आपने

गुनाह बस इतना.............     
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गुनाह बस इतना के पिता हूँ मै. 
जर जर सी खडी इमारत हूँ मैं. 
अब तो बस बूढो में गिनती है. 
अब कहाँ वो प्यारा पिता हूँ मैं ........................i 
    तेरे लिये तब खिलौना था मै. 
    तेरी जिद में घोडा बनजाता था मै 
    अपनी जवानी लगा दी तेरी पर्वरिश में. 
     अब बूढा हूँ. तब पिता था मैं..................... i 
           तेरी हर जिद हर खुशी  के लिए 
           अपना वक्त तक बेच आया मै. 
            अपनी खुशी के अपने सपने 
             तेरे बचपन में छोड आया मै......    .............
तेरे तोतले सवालो से कभी 
नाराज न हुआ मै. 
अपने हक के लिए तुझसे आज. 
इक सवाल न कर पाया मै................... 
     बढती उम्र के तजुर्बे तुझे बिठाकर. 
     घुमा कर काँधे मे सिखाया मैंने. 
      आज सवाल चुभता है तेरा 
      कि जानता ही क्या हूँ मैं................ 
             सोचा तेरे कामयाब होते ही. 
             सुकून से गुजरेगा बुढापा मेरा. 
             पता था नही की एक रोज तेरी. 
              मुसीबत बनजाऊँगा मैं ........................
नशीब वाले हैं आज वे लोग
जिनकी लड़कियां होती है. 
मेरी भी बेटी होती जब कभी आती. 
उसे अपना हाल बता पाता मैं. 
काश एक बेटी पाल पाता मैं. 
             लडको के होने पर मत इतराना. 
             उस का उदाहरण हूँ मै. 
             बेटियाँ है लगाव रखती हैं. 
            बेटे का बस इंतजार करता हूँ मैं.............. 


     गुनाह बस इतना सा है. 
     किसी बेटे का पिता हूँ मैं................ 
              सन्दीप गढ्वाली ©®